यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् |
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत || 19||
यः-जो; माम्–मुझको; एवम् इस प्रकार; असम्मूढः-संदेह रहित; जानाति–जानता है; पुरुष-उत्तमम्-दिव्य परम पुरुषः सः-वह; सर्व-वित्-पूर्ण ज्ञान युक्त, सब कुछ जानने वाला; भजति-भक्ति में तल्लीन; माम्-मुझको; सर्व-भावेन सर्वस्व रूप से; भारत-भरतपुत्र, अर्जुन।
BG 15.19: वे जो संशय रहित होकर मुझे पुरुषोत्तम के रूप में जानते हैं, वास्तव में वे पूर्ण ज्ञान से युक्त हैं। हे अर्जुन! वे पूर्ण रूप से मेरी भक्ति में तल्लीन रहते हैं।
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श्रीमद्भागवतम् में भगवान के तीन स्वारोपों का वर्णन किया गया है।
वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम्।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ।।
(श्रीमद्भागवतम्-1.2.11)
"तत्त्ववेत्ता कहते हैं कि केवल एक ही परम सत्ता है जो विश्व में ब्रह्म, परमात्मा और भगवान तीन रूपों में प्रकट है। ये तीन अलग-अलग सत्ता नहीं हैं बल्कि एक ही परम सत्ता की तीन अभिव्यक्तियाँ हैं। उदाहरणार्थ जल, बर्फ और भाप तीन अलग-अलग तत्त्व दिखाई देते हैं किन्तु ये तीनों एक ही तत्त्व के तीन रूप हैं। समान रूप से ब्रह्म भगवान का सर्वत्र व्यापक निराकार रूप है। वे जो ज्ञानयोग के मार्ग का अनुसरण करते हैं वे भगवान के ब्रह्म रूप की उपासना करते हैं। परमात्मा परम सत्ता का वह रूप है जिसमें वे सभी जीवों के हृदयों में निवास करते हैं। अष्टांग योग द्वारा भगवान की अनुभूति परमात्मा के रूप में की जाती है। भगवान परमेश्वर का वह स्वरूप है जिसमें वे साकार रूप में प्रकट होकर अपनी मधुर लीलाएँ प्रदर्शित करते हैं। भक्ति के मार्ग में परम प्रभु की अनुभूति भगवान के रूप में की जाती है। इसकी व्याख्या पहले भी श्लोक संख्या 12.2 में की गई है। इस अध्याय के 12वें श्लोक से श्रीकृष्ण ने भगवान के इन तीनों स्वरूपों का वर्णन किया है। 12वें श्लोक से 14वें में सर्वत्र व्यापक ब्रह्म की प्रकृति और श्लोक 15 में परमात्मा का स्वरूप और 17वें तथा 18वें श्लोक में भगवान के स्वरूप का उल्लेख किया गया है। अब इनमें से कौन-सी अनुभूति सर्वश्रेष्ठ और पूर्ण है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे जो भक्ति के माध्यम से उन्हें पुरुषोत्तम भगवान के रूप में जानते हैं वास्तव में उन्हें ही उनका पूर्ण ज्ञान होता है। भगवान की अनुभूति सर्वश्रेष्ठ है। इसका विस्तृत विवरण जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज ने भक्ति शतक में किया है।
तीन रूप श्रीकृष्ण को, वेदव्यास बताय।
ब्रह्म और परमात्मा, अरू भगवान कहाय।।
(भक्ति शतक-21)
"वेदव्यास के अनुसार परम सत्ता की अभिव्यक्ति ब्रह्म, परमात्मा और भगवान के रूप में होती है।" वे आगे इन तीन अभिव्यक्तियों का वर्णन करते हैं।
सर्वशक्ति संपन्न हो, शक्ति विकास न होय।
सत चित आनंद रूप जो, ब्रह्म कहावे सोय।।
(भक्ति शतक-22)
"ब्रह्म के रूप में भगवान की असीम शक्तियाँ प्रकट नहीं होती हैं। वह केवल शाश्वत ज्ञान और आनन्द प्रकट करता है।"
सर्वशक्ति संयुक्त हो, नाम रूप गुण होय।
लीला परिकर रहित हो, परमात्मा है सोय।।
(भक्ति शतक-23)
"परमात्मा के रूप में भगवान अपना रूप, नाम और गुण प्रकट करते हैं किन्तु वे लीलाएँ नहीं करते और उनके परिकर नहीं होते।"
सर्वशक्ति प्राकट्य हो, लीला विविध प्रकार।
विहरत परिकर संग जो, तेहि भगवान पुकार ।।
(भक्ति शतक-24)
परम पिता के उस स्वरूप को जिसमें वे अपनी सभी शक्तियाँ प्रकट करते हैं और अपने भक्तों के साथ अनेक प्रकार की लीलाएँ करते हैं, को भगवान कहते हैं। कृपालु जी महाराज के उपर्युक्त श्लोकों में स्पष्ट किया गया है कि ब्रह्म और परमात्मा की अभिव्यक्ति में भगवान अपनी सभी शक्तियाँ प्रकट नहीं करते। परम सत्ता की पूर्ण अनुभूति के स्वरूप में ही संभव भगवान हैं जिसमें वे अपने सभी नामों, रूपों, गुणों, लीलाओं धामों और संतों को प्रकट करते हैं। 12वें अध्याय के दूसरे श्लोक में एक ट्रेन के उदाहरण द्वारा इसकी व्याख्या की गयी है। इस प्रकार जो उन्हें भगवान के रूप में जानते हैं, उन्हें वास्तव में परम पुरुषोतम भगवान का पूर्ण ज्ञान हो जाता है।